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राम कथा - अवसर

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6496
आईएसबीएन :81-216-0760-4

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, दूसरा सोपान

चार


स्नान कर, राम जाने के लिए प्रस्तुत हुए ही थे कि उन्हें सुमंत के आने का समाचार दिया गया। राम चकित हुए : क्या हो गया है पिताजी को। क्यों बार-बार सुमंत को भेज देते हैं। राम को अभी तनिक भी विलंब

नहीं हुआ था। वह निश्चित समय से पूर्व ही पिता के पास जाने के लिए प्रस्तुत थे, ताकि उनसे अपनी बात कह सकें। फिर भी सुमंत आ गए। कोई साधारण परिचारक या सारथी आया होता तो बात और थी।...पर सुमंत सम्राट् के निजी सारथी, अनेक विशेषाधिकारों से सम्पन्न। सारथी के साथ-साथ उनके मंत्री, सखा और निजी सेवक! समस्त राजनिलयों में कहीं भी बिना रोक-टोक के आने-जाने की सुविधा से संयुक्त। उन्हीं सुमंत को पिता ने फिर भेजा है...कोई महत्त्वपूर्ण बात है, या सामान्य बुलावा ही। संभव है, नियत कार्यक्रम में कोई नई कड़ी जुड़ी हो...पिता बिना उनकी बात सुने ही काम आगे बढ़ाते जा रहे हैं। प्रबंध जितना आगे बढ़ जाएगा, राम की कठिनाई भी उतनी ही बढ़ जाएगी...किंतु सम्राट् की व्यग्रता!

''तात! मैं आ ही रहा था।''

राम ने देखा, आज के सुमंत, पिछली संध्या आने वाले सुमंत से बहुत भिन्न थे। उनकी आकृति पर उत्सव और समारोह का उल्लास नहीं था। उत्साहशून्य चेहरा अतिरिक्त रूप से गंभीर लग रहा था। उस पर चिंता की रेखाएं भी सहज स्पष्ट थी। उनकी आँखों में आज ममता और प्रेम नहीं था; उनमें सहज निर्मलता भी नहीं थी। वे आँखें शुष्क, नीरस, मरुभूमि के समान उजाड़ थीं, जीवनहीन-जैसे उनका जीवन-स्रोत ही सूख गया हो।...रात की सुख-निद्रा के पश्चात् उन्हें ऊर्जा और स्फूर्ति से भरे-पूरे लगना चाहिए था, किंतु वे प्रातः के निर्वाणोन्मुख दीपक के समान थके-थके लग रह थे।

''समारोह के दायित्व से दबे आप रात-भर सो नहीं सके?'' राम का स्वर कोमल तथा मधुर था।

सुमंत ने कोई उत्तर नहीं दिया; अपनी अन्यमनस्कता में जैसे उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। वे अपनी फटी-फटी आँखों से प्रत्येक वस्तु के आरपार देखते रहे। उनकी आकृति भावशून्य यांत्रिकता लिए थी।

एक अटपटे मौन के पश्चात् सुमंत बोले, ''राम! आपका कल्याण हो। शीघ्र सम्राट् के पास चलिए। सम्राट् कैकेयी के महल में उनके पास हैं।'' उनका कंठ अवरुद्ध होने की सीमा तक भर्राया हुआ था।

राम का आश्चर्य बढ़ गया। इतनी सुबह-सम्राट् माता कैकेयी के महल मंक कैसे पहुंच गए! पिछली शाम तक सम्राट् इस विषय में अत्यन्त गोपनीयता बरत रहे थे। सम्राट् की आशंकाओं का इंगित कैकेयी की ओर ही था। यह संभव नहीं कि सम्राट् वहां मंत्रणा के लिए गये होंगे।... यदि सम्राट् ने गोपनीयता का व्यवहार न किया होता, तो बात और थी। वैसी स्थिति में कैकेयी, इस अभिषेक में माता कौसल्या से भी अधिक सक्रिय होती।...पर सुमंत इतने पीड़ित क्यों हैं?

''बात क्या है तात सुमंत?''

''कुमार स्वयं चलकर देख लें।'' सुमंत ने अपने होंठ चांप लिए थे।

राम का मन सहसा एक अन्य दिशा में सोचने लगा।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. चौदह
  15. पंद्रह
  16. सोलह
  17. सत्रह

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